Breaking News

पार्टियों के आसमानी-सुल्तानी वादे और उत्तराधिकार के लिए चम्पुओं की दरकार

खरी-खरी            Apr 23, 2019


राघवेंद्र सिंह।
भारत पूरी दुिनया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। चुनाव लड़ने, सरकार बनाने और उसे चलाने के लिए बिल्डर, कंपनियों की तरह पार्टियां वोटर्स से आसमानी-सुल्तानी वादे करती है। इसलिए कि बस एक बार सरकार बनवा दो।

सरकार बनने पर विज्ञापन और भाषणों में किए गए वादे, वचन पत्र, संकल्प पत्र और घोषणा पत्र सब हवा हो जाते हैं। मतदाता और देश को ठग लिया जाता है। सोशल मीडिया में एक कटाक्ष खूब चलता है कि चुनाव कितने चरणों में होंगे।

जवाब आता है, दो चरणों में। पहले में उम्मीदवार और पार्टी मतदाता के चरणों में और चुनाव होते ही मतदाता नेताओं के चरणों में। फिलहाल पार्टियां और नेता जनता के चरणों में हैं... हो सकता है ये बातें अभी अधिकांश लोगों के गले न उतरें।

कम से कम नेताओं के तो शायद बिल्कुल भी नहीं। लेकिन आने वाले दिनों में उपभोक्ता फोरम और बिल्डरों की ठगी रोकने के लिए रियल स्टेट रेगुलेशन एंड डेवलपमेंट एक्ट (रेरा) जैसा कानून जब बन सकता है तो वोटरों को ठगने से बचाने के लिए भारतीय लोकतंत्र में कोई व्यवस्था भी बन सकती है।

पहले कभी नोटा (नन ऑफ द एबव) भी कल्पना से परे माना जाता था। अब डिमांड राइट टू रिकॉल की भी हो रही है। इससे पहले ज्यादा जरूरी है कि सियासी दलों द्वारा मतदाता और देश के साथ वादों के जरिए की जा रही ठगी रोकना।

एक टिकट पर एक ही पिक्चर देखी जा सकती है। लेकिन लोग ऐसे भी हैं जो एक टिकट पर दो-दो तो क्या कई फिल्में देख लेते हैं। सुनने में आश्चर्यजनक लगा ना, मगर भारतीय लोकतंत्र में ऐसा ही हो रहा है।

एक ही वादे पर कई बार चुनाव लड़ते हैं और जीतते भी हैं। मिसाल के तौर पर गरीबी हटाओ का नारा कांग्रेस ने 70-80 के दशक में दिया था। उसके बाद गरीबों ने भरपल्ले कांग्रेस को वोट दिए और सरकारें बनवाते गए। गरीबी तो नहीं हटी लेकिन गरीब को बाजार से, झुग्गियों से और सरकारी जमीनों से हटाने की खबरें आती रहीं।

भाजपा ने 1989 में नारा दिया, रामलला हम आएंगे मंदिर वहीं बनाएंगे। उसके बाद सरकारें तो बनीं, मगर भाजपा 2014 में पूर्ण बहुमत मिलने के बाद भी अब तक मंदिर नहीं बनवा पाई है। ऐसे ही कॉमन सिविल कोड और कश्मीर से धारा 370 हटाने का जो वादा था उसे संकल्प बनाने के बावजूद पूरा नहीं किया।

मजबूरियां हो सकती हैं, लेकिन संकल्प पत्र और वचन पत्रों में वोटर के लिए उन मजबूरियों का उल्लेख भी किया जाना चाहिए। ठीक वैसे ही जैसे रेरा में कोई बिल्डर अगर तय समय सीमा में फ्लैट, मकान या बंगला बनाने का जिन सुविधाओं के साथ वादा करता है वे पूरी नहीं होती हैं तो उसे जेल और जुर्माना भी हो सकता है तो फिर चुनाव के वादे तो एक उपभोक्ता के नहीं पूरे देश से होते हैं।

इसमें वादाखिलाफी वोटर और देश के साथ ठगी की श्रेणी में आती है। इस पर देश में बहस हो सकती है। लोग सहमत और असहमत भी हो सकते हैं लेकिन लोकतंत्र से ठगी के लिए कोई सिस्टम अब जरूरी है।

चुनाव में वादों को जुमला भी कहा जाता है। मसलन विदेशों से काला धन लाएंगे और वो इतना है कि हर भारतीय के खाते में 15 आएंगे। हर साल दो करोड़ नौकरियां देंगे। राष्ट्रवाद के नाम पर कोई समझौता नहीं करेंगे।

भय और भ्रष्टाचारमुक्त व्यवस्था देंगे। लेकिन होता क्या है सबको पता है। ऐसे में जरूरी है कि वादे करने वाली पार्टियों पर आज नहीं तो कल वादा पूरा नही करने वाली कंपनियों के झूठे विज्ञापन और बिल्डरों के झूठे वादों पर जिस तरह से मुकदमे होते हैं कहीं न कहीं सियासी दलों को भी इसके दायरे में लाना चाहिए।

पंचायत से लेकर पार्लियामेंट तक झूठे वादों को ऐसी फैक्ट्रियां हैं कि गांव से लेकर मेट्रो तक लोग ठगे जा रहे हैं।

सियासी दलों में सबसे ज्यादा लाचार और बेचारे कोई हैं तो वोटर के बाद कार्यकर्ता। ये इसलिए भी क्योंकि जिन नेताओं को कार्यकर्ता 30-40 साल से लगातार विधानसभा और लोकसभा का चुनाव जिता रहे हैं और उन्हें उम्मीद होती है कि जब कभी भी उनका नेता रिटायर होगा तो चुनाव लड़ने का अवसर उन्हें मिलेगा।

मगर दल कोई भी हो, अपवाद छोड़ ज्यादातर नेता अपने हटने पर अपने पुत्र और पत्नी आदि को चुनाव में टिकट दिलवाते हैं। ऐसे में कार्यकर्ता का अब ज्यादा भविष्य राजनीति में नजर नहीं आता।

पुराने जमाने में राजा भी अपने चार बेटों में से काबिल पुत्र को राजपाट सौंपता था। लेकिन अब काबिलियत के बजाए नेताओं को अपने उत्तराधिकारी के तौर पर चम्पुओं की दरकार है।

भाजपा में टिकट पार्टी ने कम गुटों ने ज्यादा बांटे..!
प्रदेश भाजपा के इतिहास में यह पहली बार हो रहा है िक चुनाव समिति की बैठक के बिना ही लोकसभा के उम्मीदवार तय हो गए। इसके पहले चुनाव समिति में दावेदारों के नामों पर विचार होता था और आम सहमति के साथ प्रत्याशियों के नाम पार्टी हाईकमान को भेजे जाते थे।

संसदीय बोर्ड इस पर अंतिम फैसला करता था। इस बार चुनाव समिति की बैठक नहीं हुई। ऐसा लगा जैसे नेताओं ने अपने अपने गुट और परिवार के हिसाब से नाम दिल्ली भेजे और अधिकांश पर विवाद होने के कारण हाईकमान को निर्णय करना पड़ा। मतलब प्रदेश कार्यालय की भूमिका जीरो रही।
(लेखक IND24 न्यूज चैनल के प्रबंध संपादक हैं)

 



इस खबर को शेयर करें


Comments