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विशुद्ध रूप से शिकारी बनाम शिकारी वाला चैप्टर

मीडिया, राज्य            Dec 06, 2019


प्रकाश भटनागर।
तो यह घर-घर की कहानी नहीं, सिर्फ एक घर की कहानी है। इस घर में शबे-मालवा की पाकीजा पहचान को निर्वसन करने का खेल बीते लम्बे समय से चला आ रहा है। देश के हृदय प्रदेश की व्यावसायिक राजधानी का यह घर कभी प्रतिष्ठित नहीं था, सतत रूप से गलत गतिविधियों का केंद्र था। पर जिम्मेदारों की आंखों पर पट्टी बंधी थी।

आंखों पर चढ़ा यह आवरण क्या था, समझने की बात है। अचानक उस जगह के पाप फूट-फूटकर बाहर आने लगे हैं।

खादी वाले गरज रहे हैं कि कार्रवाई करके रहेंगे। खाकी वाले उछल रहे हैं कि लो, हमने कर दिखाया। लेकिन यह कोई नहीं बता रहा कि यह सब होने में इतना लम्बा समय क्यों लग गया। शासन, प्रशासन और पुलिस को यकायक किसने ऐसी शिलाजीत चटा दी कि उनकी सारी नामर्दानगी जाती रही।

यह नार्मदी ही थी, जिसके चलते अहिल्या देवी की नगरी में एक ठिकाना हर किस्म की गलत गतिविधियों का केंद्र बनकर सरेशाम चलता रहा।

तो साहब ‘खोयी ताकत और जवानी फिर से प्राप्त करें’ वाले दीवार छाप दावे का यूं सही साबित होना चौंका रहा है। ताकत खोने के कई सबब होते हैं। यह भ्रष्ट होकर गंवायी जा सकती है।

इसे डर के चलते भी खोना संभव रहता है। लोभ तथा निजी स्वार्थ भी इसके पतन के प्रमुख कारणों में गिने जाते हैं। यहां भी यह सारे फैक्टर थे, जिनके चलते सरकार, प्रशासन और पुलिस बीते करीब दो दशक से अधिक समय तक मूक-बधिर जैसा आचरण करते रहे।

फिर हुआ यूं कि इन सभी को उनकी शक्ति का अहसास हो गया। खादी वालों ने मेरा घर में दागदार हुए कपड़े धो-सुखाकर पहने। खाकी भी अचानक से साफ-सुथरी होकर अगले को खाक करने वाली मुद्रा में आ गयी।

टाई-कोट वाले काले अंग्रेज भी बीस साल से ज्यादा पुरानी अपनी कालिख को मिटाकर सफेदी का उजियारा फैलाने के दम्भ से भर गये।

पूरा घटनाक्रम, ‘सलीम तुझे मरने नहीं देगा, हम तुझे जीने नहीं देंगे’ में बदल कर रह गया है। जो उलझे दिख रहे हैं, उन्हें सुलझे माहौल में रहने और जीने की कभी आदत ही नहीं रही है।

वे दंद-फंद के आदी हैं। यही उनकी यूएसपी है। इसलिए वे इस यकीन से भरे दिखते हैं कि यह आचरण उन्हें मरने नहीं देगा। वैसे ही अमरत्व प्रदान करेगा, जैसा अब तक होता चला आ रहा है।

इधर, जो उलझने से पहले ही सजग हो गये, उन्हें ऐसे माहौल में रहने और जीने का अभ्यास हमेशा से रहा है। वे जानते हैं कि यह शिकार हाथ से जिंदा बच गया तो उनके आने वाले दिन भयावह रूप से कष्ट भरे हो सकते हैं।

उनमें से कई की रंगीन रातें सार्वजनिक हो जाएंगी। यह सामने आ जाएगा कि अनैतिक रूप से शहद पीने की हवस की कीमत उन्हें कितनी भारी रकम देकर चुकाना पड़ी है। इसलिए वे अगले को जीने नहीं देने की कसम खाकर उस पर पिल पड़े हैं।

मेरी नजर में यह शिकारी और शिकार वाला मामला है ही नहीं। यह विशुद्ध रूप से शिकारी बनाम शिकारी वाला चैप्टर है। सब अपने-अपने मचान पर बैठकर शिकार कर रहे हैं। किसी ने मीडिया को इसका मचान बना दिया।

तो किसी ने किसी सरकारी भवन के आलीशान कक्ष को इसमें तब्दील किया।

अब चुके हुए कारतूस में परिवर्तित मालवा के एक नेता यकीनन उस दिन को कोस रहे होंगे, जब उन्होंने कुछ पैसों के लिए मीडिया की अपनी ताकत एक ऐसे कलाकार के हाथ में दे दी थी, जिसने कलमकारों की मदद से उन नेताजी को ही कहीं का नहीं छोड़ा।

कालांतर में यह कलम हरेक नियम और कायदे को कलम करते हुए तमाम गलत को संरक्षण देने का जरिया बन गयी।

भ्रष्टाचार, लालच और मीडिया के गलत इस्तेमाल की इस कलियुगी त्रिवेणी में तमाम दिग्गज चेहरों ने डुबकी लगायी। फिर मौका मिला, तो राजधानी भोपाल से संचालित उस हमाम में भी छककर नहाये, जिसमें पानी की जगह शहद का इस्तेमाल किया जाता था।

गलती यह कि शहद से नहाकर निकले तो पानी की कीमत नहीं समझी। सो उस चिपचिपे बदन पर ब्लैकमेलिंग वाली चीटियों ने हमला बोल दिया। तो बचने के लिए यही जतन बचा कि इन चीटियों से हो रही भयावह जलन को काले धन वाले मलहम से दूर कर दिया जाए। यह धन आम जनता का था। लेकिन गलत हाथोंं में था।

फिर हुआ यह कि एक गलत हाथ से निकलकर यह पैसा कई और गलत वालों की जेब में जा समाया। यह सब यूं ही चलता रहता। बल्कि वह दिन आना भी संभव था कि इस घर जैसा कुटीर उद्योग पूरे प्रदेश में व्यापक स्तर पर संचालित कर दिए जाते।

पर इस महाअभियान में कुछ खलल पड़ गया। पहले कई तितलियों की उड़ान के नंगेपन के खुलासे हुए। फिर पता चला उन तितलों का, जो इस खेल में पहले मजा और फिर सजा का पात्र बन गये।

बात यहीं संभल जाती। स्थिति पर नियंत्रण की शक्ति उस हमाम के पास है, जिसमें सभी तो नहीं, लेकिन हां, अधिकांश नंगे हैं। उन्होंने अपनी करतूतों को दबाने का पूरा बंदोबस्त कर लिया।

मैंने सुना भी है कि नंगों के नौ ही ग्रह बलवान होते हैं। सो, उन्होंने तगड़ी नाकाबंदी और मोर्चाबंदी कर ली। गोपनीयता के नाम पर गंदी हरकतों को छिपाने का प्रबंध हो गया।

लेकिन दंद-फंद के आदी सामने आ गये। कच्चे चिट्ठे उजागर करने लगे। तब कहीं जाकर यह तय पाया गया कि इस भस्मासुर को थामा जाना जरूरी है।

अखबारों में मुंह छिपाए दिख रहे करीब पांच दर्जन जनाना चेहरे इसकी प्रमुख वजह बना दिये गये। ये चेहरे वस्तुत: हमारी व्यवस्था पर पड़े वह तमाचे हैं, जिनके दाग किसी भी तरह से नहीं मिटाये जा सकते। दाग हटाने के लिए उनकी सार्वजनिक नुमाइश जरूरी है।

किसी भी चोट या निशान को ढंका रखे हुए उसे मिटाने की कल्पना करना बेमानी है। तो इन दाग को मिटाना है तो पहले वह चेहरे सामने लाए जाएं, जिन पर उन्होंने कब्जा कर रखा है। ये रसूखदार लोग हैं। उन्हें बेनकाब करना आसान नहीं होगा। लेकिन ऐसा करना तो होगा ही।

होने दीजिए शर्मिंदा ऐसे लोगों को। उनमें से यदि कुछ आत्महत्या कर लें, तब भी फर्क नहीं पड़ता। इस बात से बहुत फर्क पड़ता है कि प्रदेश में चल रही अनगिनत जिस्म की मंडियों ने पूरे सिस्टम को अनाचार के साम्राज्य में तब्दील कर दिया है।

यह कीचड़ युद्ध है। कीचड़ एक-दूसरे पर उछालकर उसके भीतर सत्य की सफेदी को मिटाने का कुचक्र चल रहा है। सरकार वैसी ही मूकदर्शक बनी हुई है, जैसा हम केंद्र से लेकर राज्यों तक के स्तर पर देखने के लिए अभिशप्त हैं।

हमारी नजर में सरकार चलती है, लेकिन गौर से देखिए कि उसे चलाया जा रहा है। बल्कि हांका जा रहा है। हांकने वालों की ताकत कमाल की है। इतने शक्तिशाली कि सरकार रूपी बैल की आंख पर पट्टी बांधकर उसे कोल्हू का बैल बना देते हैं।

इस कोल्हू में आम जनता की उम्मीदों को पिसकर उनका तेल निकाला जाता है। तेल की मालिश मानव शरीर को फूर्ति तथा ताकत से भरती है। तो इस कोल्हू के निर्माता, निर्देशक तथा संचालक इसी तेल की मालिश से लगातार मजबूत होते चले जा रहे हैं।

उन्हें रोकने का एक ताजा मौका हाथ आया है। ऐसा अवसर, जिसका इस्तेमाल कर सरकार बता सकती है कि वह किसी का हाथ थामकर चलने की मोहताजी से मुक्त हो रही है।

उन्हें एक्सपोज किया जाना चाहिए। यह समय की मांग है। याद दिला दें कि समय में वह ताकत होती है, जो शिलाजीत चाटकर मिली शक्ति से बहुत ज्यादा प्रभावी है।

 



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