डॉ. सागर से रजनीश जैन।
सिंधिया परिवार की एकजुटता और लक्ष्यों को लेकर समानता अक्सर सामने आती है। सिंधिया राजघराने के इतिहास का अध्ययन बेहद दिलचस्प नतीजे सामने रखता है। खासतौर पर एक निष्कर्ष उभर कर आता है कि इन्हें किन्हीं भी परिस्थितियों में अपनी सत्ता बचा लेने और बार बार ताकतवर होकर सामने आ जाने का हुनर बखूबी आता है। सत्ता का स्वरूप चाहे राजतंत्रीय हो, औपनिवेशिक या फिर विशुद्ध लोकतान्त्रिक देश में यही एक घराना है जिसने हर बदलते वक्त में खुद को प्रासंगिक रखा। सिंधिया वे हैं जो हमेशा किसी केंद्रीय सत्ता को धुरी मानकर अपनी क्षेत्रीय सल्तनत को बरकरार रखते हैं। उस केंद्रीय सत्ता की वे निष्ठापूर्वक रक्षा करते हैं। केंद्रीय सत्ता को कमजोर होता देख उसे सहारा देकर खड़ा करने की कोशिश करते हैं और यदि शीर्ष स्वामी ढह जाने की कगार पर हो तो खुद नेतृत्व हासिल करने की कोशिश करते भी देखे गये हैं।
...सिंधियों का इतिहास बताता है कि खुद के ताकतवर हो जाने के हालात बनते ही ये अपने आसपास के समकालीन शासकों को और उनकी प्रजा के साथ कुटिलता के साथ अत्याचार (आज की भाषा में अन्याय) करने से कतई बाज नहीं आते। इन्हें ऐसा करते बिल्कुल सहज लगता है जैसे कि यह इनका दैवीय अधिकार हो। इन निष्कर्षों के पक्ष में कुछ घटनाक्रमों को देखें जो सिंधिया शासकों ने अंजाम दिए।
जानकोजी सिंधिया इकलौते ऐसे शासक थे जो पानीपत की तीसरी लड़ाई से जीवित लौट कर आऐ।हालांकि वे घायल थे, कैद में थे और शीघ्र ही उनका निधन हो गया।जबकि इस युद्ध में लाखों मराठा सैनिक , उनके 26 महत्वपूर्ण सरदार, पेशवा का पुत्र विश्वासराव और भाई सदाशिव भाऊ लड़ाई में मारे गये। सिंधिया का बच निकलना महज संयोग नहीं था। इसमें सिंधिया की कूटनीति शामिल थी जिसके तहत उनके ही प्रभाव वाले मोठ के महंत राजेंद्र गिरि गुसांईं की सन्यासी सेना दुश्मन अहमद शाह अब्दाली की ओर से लड़ रही थी। यह भी महज इत्फाक नहीं था कि युद्ध भूमि से जीवित बची कुछ कुलीन महिलाओं को फिरौती देकर अफगानों से बचाया गया तथा महत्वपूर्ण शाही परिवार के शवों को अंतिमसंस्कार के लिए रणभूमि से पूना तक ले जाया जा सका। बहुत से मराठे धर्मपरिवर्तन से बचाये गये।इसके पीछे भी गुसांईं महंत का चैनल ही काम आई।
हालांकि बाद में इसे हिंदू भावनाओं के सम्मान में गुसाँई योद्धाओं द्वारा किया गया परमार्थ बताया गया। लेकिन तत्पश्चात जब पानीपत का बदला मराठाओं ने लिया तो दुश्मन सेना के साथ लड़े गुसाँईयों को बख्स दिया गया और रोहिल्लाओं को चुनचुन कर क्रूरतापूर्वक मार डाला गया। और एक दशक बाद ही गुसाँई सरदार अनूपगिरि हिम्मतबहादुर महाद जी सिंधिया का सरदार बनकर इंदौर के होल्करों, और सागर देवरी जैसी कई मराठा शासित रियासतों में सिंधियों की तरफ से हमले और लूटपाट करता नजर आता है। एक बार तो महाद जी इतने ताकतवर हो गये कि पूना में कौन पेशवा चुना जाऐ यह तय करते हुए पूना के पेशवा की सत्ता ढाई साल तक परोक्ष रूप से खुद चलाते हैं। होल्कर परिवार के उत्तराधिकार की समस्या में जबरिया हस्तक्षेप कर सैन्य कार्रवाई करते हैं।कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह के पूर्वज राघौगढ़ रियासत के खींची राजपूतों को राजस्थान में अपनी परंपराओं की रक्षा के लिए संघर्ष की बदौलत मध्यभारत में एक नैसर्गिक प्रतिरक्षा और बलिदानी सम्मान प्राप्त था लेकिन सिंधिया शासक ने बलवंतराव खींची के परिवार को दो वर्ष तक कारागार में डालकर यातनाएं दीं। राज्य का हिस्सा और रकम वसूल कर उन्हें छोड़ा गया।
महाद जी के उत्तराधिकारी ग्वालियर नरेश दौलतराव सिंधिया बुंदेलखंड के महान शासक महाराजा छत्रसाल के वशंज पन्ना अजय गढ़ के नौने अर्जुन सिंह और उसके नाबालिग शासक भतीजे की क्रूरतापूर्वक हत्या कराई हिम्मतबहादुर गुसाँई की सेना भेज कर। इस लुटेरी सेना ने जमकर नरसंहार किया और खजाना लूटा। आतंक फैला उसके एवज में आसपास के बुंदेला राजाओं से चौथ बांधी।...इस पूरे इलाके को नियंत्रित करने के लिए सागर जिले की मालथौन सीमा पर फ्रांसीसी जनरल जान बैपटिस्ट के नेतृत्व में विशालकाय सेना का स्थायी कैंप बनाया जिसका खर्चा बुंदेलखंड के राजाओं से वसूला जाता था। इसी सेना ने गढ़ाकोटा के बुंदेला शासक पर हमलाकर आधा राज्य ले लिया। यहाँ के शासक के सगे भाई} जालमसिंह की हत्या दस हजार रुपये पेशेवर बधक हत्यारों को देकर कराई।
सिंधिया संचालित पिंडारी गिरोहों के खौफ का साया बुंदेलखंड सहित पूरे मध्यभारत में रहा। हत्याऐं , लूट, बलात्कार के लिए मशहूर सिंधिया और होल्कर समर्थित पिंडारियों का अंग्रेज अफसरों द्वारा लिखित इतिहास पढ़ें तो पता लगता है कि मद्रास, भुवनेश्वर और मिर्जापुर तक लूटमार करने वाले ये पिंडारी सिंधिया शासित जिलों में ही निवास करते थे और ईमानदारी से लूट की तिहाई सिंधिया दरबार को देते थे। बदले में परिवारों और धनसंपत्ति की सुरक्षा तथा युद्ध सामग्री सिंधिया की ओर से पिंडारियों को दिया जाता था। 1803 में सिंधिया समर्थित पिंडारी सरदार अमीर खाँ ने मराठा रियासत सागर पर जो हमला और लूटमार की उसका ब्यौरा इतिहासकार बृंदावनलाल वर्मा की पुस्तक 'कचनार की कली' में मिलता है। डेढ़ माह तक हर दिन सागर शहर का एक हिस्सा जला दिया जाता था। क्रूरतापूर्वक यातनाएं देकर शहरवासियों से उनकी संपत्ति कबूलवाई गई। यह पता लगने पर कि कईयों ने अपनी दौलत कुओं और तालाब के घाटों में छुपा दिया है,अमीर खाँ ने पेशेवर गोताखोर बुलाकर संपत्ति बरामद कराई।
इस हमले में सागर के मराठा शासक रघुनाथराव के एक परिजन का अपहरण कर लिया गया जिसे सिंधिया नरेश की मध्यस्थता के बाद तत्कालीन एक लाख 75 हजार रु फिरौती देकर छुड़ाया गया। इस वारदात से सागर के मराठा शासक की विधवा रानियों राधा बाई और रूक्मा बाई ने अंततः सागर की सत्ता से मोसभंग ही कर लिया और चार साल बाद अंग्रेजों से संधि करके सागर उन्हें सौंप दिया।
भोपाल रियासत में हयात मोहम्मद खान के शासनकाल में अमीर खाँ के साथ मिल कर सिंधिया ने भोपाल के खजाने पर हाथ साफ किया।जबकि अमीर खाँ भोपाल नबाब के चीफमिनिस्टर छोटे खान का ही पुत्र था। इसी अमीर खाँ पिंडारी को मेवाड़ की राजकुमारी कृष्णाकुमारी के विवाह संबंधी मामलों में जयपुर जोधपुर राजाओं के बीच हुई जंग में सिंधिया शासक ने इस्तेमाल किया और अंततः मेवाड़ पर हमला कर झगड़े का कारण समाप्त करने के लिए राजकुमारी को ही जहर देकर मरवाया गया।
1817 के पिंडारी उन्मूलन के लिए हेस्टिंग्स की गवर्नरी में अंग्रेजों के भीषण अभियान में हजारों पिंडारी मारे गये और कई पिंडारी सरदार अवध और गोरखपुर के इलाकों में निर्वासित किए गये लेकिन सिंधिया ने बड़ी चतुराई से अपने ही सबसे ताकतवर पिंडारी सरदार अमीर खाँ, करीम खाँ और नामदार खान का समर्पण करवाया और अंग्रेजी शर्तनामे का पालन भी किया। अमीर खाँ से मिलीं सूचनाओं को अंग्रेंजों से शेयर कर अंग्रेजों का विश्वास हासिल किया। सिंधिया नरेश की इसी कूटनीति का परिणाम था कि सिर्फ अमीर खाँ पिंडारी को अंग्रेजों ने बख्शा और टोंक का नवाब बना दिया। यह वही अमीर खाँ पिंडारी था जिस पर आमिर खान अपनी आने वाली फिल्म बना रहे हैं। (क्रमशः)
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।
Comments