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मी लार्ड! आखिर सवाल देश के सर्वोच्च प्रतिष्ठान की गरिमा से जुड़ा है

वामा            Apr 23, 2019


राकेश दुबे।
देश के प्रधान न्यायाधीश पर लगे यौन शोषण के आरोप ने सर्वोच्च न्यायालय समेत पूरे देश में हलचल मचा रखी है, यह हलचल होनी ही थी। कारण उन पर यौन शोषण का आरोप लगा है। ये आरोप राजनीतिक दुश्मनी है या और कुछ , यह तो जांच के बाद ही पता लगेगा।

देश के प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई के विरुद्घ यह मामला सर्वोच्च न्यायालय के उन प्रक्रियागत दिशानिर्देशों का भी अहम परीक्षण है जो सर्वोच्च न्यायालय द्वारा ही 1997 में एक प्रकरण में दिए हुए है।

ये दिशानिर्देश 2013 कानून की शक्ल में बदल गए हैं। इन्हें विशाखा गाइडलाइन के नाम से जाना जाता है। जिसमें 10 या उससे से अधिक कर्मचारियों वाले सभी संस्थानों में शिकायत समिति का होना अनिवार्य किया गया है।

सर्वोच्च न्यायालय ने ही संसद से कानून बनने के बाद अपनी विशाखा समिति गठित तो की, परंतु इस मामले में इसे अमल में नहीं लाया गया। ये ही एक बड़ा सवाल है जिससे उथल-पुथल मची है।

सबको स्मरण है कि पिछले साल जनवरी में तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा द्वारा प्रक्रियाओं के अतिक्रमण के खिलाफ हुए न्यायाधीशों के अप्रत्याशित सामूहिक विरोध प्रदर्शन में गोगोई भी भागीदार थे।

इस बात ने प्रक्रियाओं और नियम कायदों के पालन को लेकर उनकी छवि बहुत मजबूत की थी। अब श्री गोगोई खुद पर इन नियमों को लागू करने के अनिच्छुक दिखते हैं सवाल यह है तब बवाल क्यों था ?

सही मायने में यौन शोषण शिकायत समिति के माध्यम से जांच प्रक्रिया की शुरुआत करना इस मामले में एकदम उचित कदम होता, इसके बजाय श्री गोगोई ने अपने बचाव का एक अस्वाभाविक तरीका चुना।

कथित पीड़ित की तुलना में उनकी शक्तिशाली स्थिति का भी बचाव नहीं किया जा सकता। सोलीसिटर जनरल द्वारा आरोपों की सूचना मिलने के बाद गोगोई ने सुनवाई के लिए एक विशेष पीठ बनाई जिसमें न्यायाधीश संजीव खन्ना और न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा शामिल थे।

उन्होंने कहा कि यह सुनवाई 'महत्त्वपूर्ण सार्वजनिक महत्त्व के मसले से जुड़ी है और यह न्यायपालिका की स्वायत्तता से सम्बन्धित है।'

इसके बाद वह आधे घंटे तक अपने निर्दोष होने के बारे में बोलते रहे। उन्होंने अपने मामूली बैंक बैलेंस और पीडि़ता की प्रतिष्ठा को लेकर भी बातें कीं। सवाल यह है क्या यह उचित और जरुर्री था ?

अब इस सबसे कई सवाल खड़े होते हैं। जिन २६ न्यायाधीशों को पीड़िता का हलफनामा मिला, उनमें से केवल दो न्यायाधीशों को इस 'विशेष पीठ की सुनवाई' में शामिल क्यों किया गया? जैसा कि श्री गोगोई ने दावा है यौन शोषण की शिकायत किस तरह न्यायपालिका की स्वायत्तता को प्रभावित करती है?

शिकायतकर्ता को इस विशेष पीठ के समक्ष उपस्थित होने की इजाजत क्यों नहीं दी गई? अंतिम सवाल दमदार है क्योंकि कानून के मुताबिक शिकायत समिति के शिकायत स्वीकार करने के लिए प्रधान न्यायाधीश की इजाजत आवश्यक है।

प्रधान न्यायाधीश के विरुद्घ सुनवाई के लिए कोई प्रक्रिया नहीं है। कथित पीडि़त की सुनवाई की अनुपस्थिति में अदालत ने एक वक्तव्य जारी किया जिस पर केवल न्यायमूर्ति मिश्रा और खन्ना के हस्ताक्षर थे।

मीडिया को हिदायत है कि वह जिम्मेदारी भरा व्यवहार करे और विचार करे कि क्या ऐसे फिजूल और विवाद पैदा करने वाले आरोपों को प्रकाशित करना है? क्या यह सलाह उचित है ?

मामले का परीक्षण बिना पीड़ित से प्रश्न-प्रतिप्रश्न किए कर लिया गया। स्वतंत्र जांच का सुझाव क्यों नहीं दिया गया? शिकायतकर्ता के प्रक्रिया में शामिल न होने के बाद भी उसकी विश्वसनीयता का संदर्भ और उसके कथित आपराधिक रिकॉर्ड का जिक्र भी अस्वाभाविक था।

अब आखिर सवाल देश के सर्वोच्च प्रतिष्ठान की गरिमा से जुड़ा है, न्याय होते हए दिखना चाहिए का उपदेश कैसे दिया जा सकता है जब आप ही ऐसी मिसाल पेश कर रहे हैं। पूरे सम्मान के साथ निवेदन।

 



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