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हाईजीन की चिंता करती युवा पीढ़ी के दौर में प्याऊ पर भारी बोतलबंद पानी

वीथिका            May 22, 2019


मनोज कुमार। 
भारतीय परम्परा में दान का सबसे ऊंचा स्थान रहा है। जन्म से लेकर मृत्यु तक हमारी परम्परा में दान का उल्लेख आता है। तथाकथित सभ्य समाज कई बार इस परम्परा पर आक्षेप करता है। लेकिन यह भूल जाता है कि दान से आशय भीख देना नहीं होता है।

अपितु एक संस्कार होता है। एक सभ्यता का जन्म होता है और एक मनुष्य के प्रति मनुष्यता का भाव होता है। आज हम विकास के नए प्रतिमान गढ़ रहे है लेकिन इसके साथ ही परम्परा का विनाश भी कर रहे हैं।

परम्पराओं के साथ समाज की वर्जनाएं टूट रही हैं। इससे व्यक्ति का नहीं, समाज का नुकसान हो रहा है। समाज का तानाबाना बिखर रहा है। रिश्तों में कड़़ुवाहट घुल रही। यकीन ना हो तो अपने आसपास देख लीजिए।

अंग्रेजी के एक शब्द हाईजीन ने ऐसी घुसपैठ की है जिसने रिश्तों की आपसी मिठास में खटरस डाल दी है। हाईजीन कोई गलत चीज या गलत सोच नहीं है लेकिन हरेक की अपनी मर्यादा होती है और मर्यादा टूटती है तो समस्या विकराल होती है।

इस हाईजीन ने हमारी परम्परा को घात किया है। यकीन ना हो तो ज्यादा नहीं अपने घर से आप किलोमीटर पैदल घूम आइए, आपको सच का पता चल जाएगा। एक जमाना था कि अप्रेल महीने की तपिश के साथ ही सडक़-चौराहों पर प्याऊ सज जाते थे। सुंदर मटकों के साथ उसमें स्वच्छ और निर्मल जल से राहगीर को ठंडक का अहसास होता था लेकिन हाईजीन ने नई पीढ़ी को प्याऊ से दूर कर दिया है।

जिस तरह वे पारम्परिक खान-पान से दूर होकर फास्ट फूड के सहारे हो गए हैं। फास्ट फूड ने सेहत का कितना कबाड़ा किया है और कर रहा है, इस बात की गहराई में जाने की जरूरत नहीं है लेकिन फास्ट फूड ने पारम्परिक खान-पान को अपूरणीय नुकसान पहुंचाया है।

नयी पीढ़ी के लिए पारम्परिक खानपान उनके सेहत के लिए नुकसानदेह है। घी और मक्खन उनके लिए फैट बढ़ाने के कारक हैं। ऐसा सोचते और व्यवहार में लाते हुए वे भूल जाते हैं कि फास्ट फूड के सेवन के चलते अनन्य बीमारियों के शिकार हो रहे हैं।

हाईजीन की चिंता करती युवा पीढ़ी बोतलबंद पानी में घुलती जा रही है। बोतल में बंद पानी कितना पुराना है और उसका उनके शरीर पर क्या दुष्परिणाम होगा, इससे वे बेफ्रिक हैं। वे तो बोतल बंद पानी में पैकिंग और उसकी एक्सपायरी डेट देखकर तसल्ली कर लेते हैं कि यह पानी फिलहाल तो पीने लायक है।

उन्हें कौन समझाए कि जिन बोतलों में बंद पानी की मृत्यु तारीख लिखी है, उस छपी तारीख के बाद पानी का कम्पनी क्या उपयोग करती है, इसका युवा पीढ़ी को पता नहीं होता है। क्या बोतलों में बंद पानी की मृत्यु तारीख के बाद उसे विसर्जित किया जाता है अथवा उसे पुर्नउपयोग में लाया जाता है?

चूंकि बाजार अपने उत्पाद को रिसायकल कर एक बार नहीं अनेक बार उपयोग में लाने के लिए उपभोक्ताओं को विवश करता है। ऐसे में यह तय करना मुश्किल सा है कि बोतलों में बंद पानी की मृत्यु तारीख को देखकर जिस जल का हम उपयोग कर रहे हैं, वह कितना सुरक्षित है।

बाजार का पूरा गणित लाभ-हानि पर टिका होता है और इस गणित को बाजार कभी कमजोर होते नहीं देख सकता है।

बाजारी खान-पान को लेकर अक्सर शिकायतों का अंबार होता है लेकिन हम बेखबर होते हैं। या यूं कह लीजिए कि अपनी अलाली के कारण इसकी खबर नहीं रखते हैं। इस बेखबरी के आलम में हमारी सामाजिक परम्पराओं का ताना-बाना टूट रहा है।

बोतलबंद पानी या प्लास्टिक के पाउच में बंद पानी ने हमारी प्याऊ परम्परा को नुकसान पहुंचाया है। एक समय था जब चौक-चौराहे पर हर पचास गज की दूरी को नापते ही सुंदर मटके अपने भीतर रखे गए शीतल जल से प्यासे राहगीर को ठंडक पहुंचाता था।

प्याऊ शुरू होने के पहले का नेग भी होता था। पूजा अर्चना के बाद नेग के तौर पर मटकों में सिक्के रखे जाते थे और फिर उस पर खूबसूरत लाल रंग का कपड़ा ऐसे लपेट दिया जाता था कि आते-जाते राहगीर को मोह ले।

कहीं तीन तो कहीं पांच मटके रखे जाने का प्रचलन था। विषम संख्या में मटके क्यों रखे जाते थे, यह तो स्पष्ट नहीं हो पाया लेकिन सुविधा के लिहाज से भी इसे माना जाता था। जिस हाईजीन की बात हम कर रहे थे, वह प्याऊ के मटके में पाया जाता था।

पहले से छना हुआ निर्मल जल मटके में डाले जाने से पहले सफेद कपड़े की एक जाली रखी जाती थी, जिसमें छनकर पानी मटके में रखा जाता था। मटके में हाथ डालकर पानी निकालने पर रोक थी।

किसी लोटे या किसी अन्य बर्तन से पानी निकाला जाता था और राहगीर को गिलास में भरकर पानी पीने के लिए दिया जाता था। अक्सर राहगीर पानी के बर्तन को मुंह से जूठा नहीं करता था बल्कि अंजुली में भरकर या फिर ऊपर से पी लिया जाता था। बर्तन और घड़े की सफाई भी नियमित की जाती थी।

प्याऊ में सफाई का खयाल हाईजीन की नजर से तो रखा जाता ही है बल्कि इसे धर्म-कर्म से भी जोड़कर देखा जाता है। प्यासे को पानी पिलाना एक पवित्र कार्य माना जाता है और जब भावना पवित्र हो तो स्वच्छता रखना कर्तव्य हो जाता है। बोतलबंद पानी ने प्याऊ को बंद हो जाने के लिए मजबूर कर दिया है।

यह उन लोगों के लिए प्रताडऩा है जो बोतलबंद पानी खरीदकर पी नहीं पाते हैं। सार्वजनिक नल और हैंडपम्प के हाल इतने बिगड़े हुए हैं कि प्यासे मुसाफिर को वहां भी पानी मयस्सर नहीं।बाजार का पानी पर यह आक्रमण भारतीय परम्परा पर आक्रमण है।

अक्सर शासकीय बैठकों में बोतलबंद पानी रख दिया जाता है। बाजार ने देखा कि बड़ी बोतलों का विरोध हो रहा है तो सुविधा के लिए छोटी बोतलों को उतार दिया। बाजार अपना रास्ता तलाश लेती है लेकिन हम अपनी परम्परा को बचाने के लिए कोई रास्ता नहीं तलाश पाए।

गिलास भर पानी पिलाने की जगह पर आधा गिलास पानी का चलन शुरू कर दिया। यह फैसला अच्छा है लेकिन बोतलों को मेज और बच्चों के बैग से बाहर फेंकने की यह प्रक्रिया आरंभ कर दी जाए तो शायद प्याऊ के बिसरे दिन लौट सके।

परम्परा की ओर लौटना ही होगा क्योंकि जीवन परम्परा से है, समाज का ताना-बाना परम्परा से है और परम्परा ही रिश्तों की पहचान है। मैं बेस्रबी से उस वक्त की प्रतीक्षा कर रहा हूं जब हमारा समाज प्याऊ की ओर लौटेगा।

फिर एक बार लाल कपड़े में लिपटा मटका कहेगा-रे मुसाफिर ठहर जरा, कर ले गला तर।मैं तेरे इंतजार में हूं।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और समागम पत्रिका के संपादक हैं।

 



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