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हिन्दी समाज हिन्दी साहित्य को डिजर्व नहीं करता

वीथिका            May 08, 2019


हेमंत कुमार झा।
बरसों पहले अशोक वाजपेयी को एक व्याख्यान में कहते सुना था, "हिन्दी समाज हिन्दी साहित्य को डिजर्व नहीं करता...।"
सामान्य संदर्भों में उनके वक्तव्य का यही अर्थ था कि हिन्दी का साहित्य जितना श्रेष्ठ और समृद्ध है, वैचारिक रूप से जितना उन्नत है, हिन्दी समाज चेतना के स्तर पर अपने साहित्य की श्रेष्ठता और वैचारिकता के साथ अपेक्षाओं के अनुरूप अन्तःक्रिया नहीं करता।

जिस तरह बांग्ला साहित्य से बंगाल की जनता का भावनात्मक जुड़ाव है, मराठी और तमिल साहित्य के प्रति मराठी या तमिल भाषियों की श्रद्धा है, हिन्दी क्षेत्र में उसका अभाव है।

हिन्दी साहित्य की समृद्धि पर कुछ कहने की आवश्यकता नहीं। महान साहित्यकारों की सुदीर्घ परंपरा के साथ ही हिन्दी में ऐसे कवियों, लेखकों की भी लंबी फेहरिस्त है जिनकी रचनाएं वैश्विक स्तरों पर समादृत हुई हैं। हिन्दी समाज के बौद्धिक विकास और सामाजिक बदलावों में इन साहित्यकारों की प्रभावी भूमिका रही है। तथापि, हम हिन्दी भाषियों में साहित्य के प्रति उस अनुराग का अभाव पाते हैं जो अंग्रेजी, फ्रेंच, बांग्ला या मराठी समाज में रहा है।

जो समाज अपने साहित्यकारों को वाजिब सम्मान नहीं दे सकता वह अपने बौद्धिक वर्ग को कैसे वह सम्मान दे सकता है जो उन्हें दिया जाना चाहिये।

इसका पहला प्रभाव तो सांस्कृतिक क्षरण के रूप में सामने आता है। दूसरा प्रभाव यह सामने आता है कि अपने दौर में हो रहे सामाजिक बदलावों के प्रति ग्रहणशीलता में ऐसा समाज कहीं न कहीं पिछड़ता जाता है।

राजनीतिक अर्थशास्त्री जिसे 'काऊ बेल्ट' कहते हैं, यानी बिहार, यूपी, एमपी आदि, उसके सामाजिक पिछड़ेपन को आप उस समाज के अपने बौद्धिकों के साथ अन्तर्सम्बन्धों के धरातल पर परिभाषित कर सकते हैं।

हाल के वर्षों में बुद्धिजीवी शब्द को लेकर हिन्दी समाज में जितनी नकारात्मकता बढ़ी है, उसकी मिसाल अन्यत्र नहीं मिल सकती। बुद्धिजीवियों के प्रति उपहास के बढ़ते भाव ने समाज की बौद्धिक प्रगति को कहीं न कहीं अवरुद्ध किया है और इसका सबसे अधिक लाभ राजनीतिज्ञों ने उठाया है।

किसी सत्ता के प्रति बौद्धिकों के विरोध को कोई समाज अगर उपहास के विषय में तब्दील कर देता है तो यह उस समाज में बढ़ती मानसिक रुग्णता को ही दर्शाता है। सत्ता के लिये ऐसी मानसिक रुग्णताएं वरदान साबित होती हैं क्योंकि तब अपनी चलाना उसके लिये अधिक आसान हो जाता है।

पश्चिमी समाज इस मायने में ऐसी रुग्णताओं से अधिक प्रभावित नहीं। यद्यपि उनके अपने सामाजिक अंतर्विरोध हैं, लेकिन वे अपने बुद्धिजीवियों को उपहास का विषय नहीं बनाते।

उपभोग और समृद्धि के शिखर पर पहुंचे अमेरिका या अन्य यूरोपीय देशों में सांस्कृतिक क्षरण के चाहे जितने अध्याय लिखे जा रहे हों, वे अपने बौद्धिकों की बातों को गम्भीरता से लेते हैं। कम से कम उनका उपहास तो नहीं ही उड़ाते। यही कारण है कि हम अतीत में अपने विश्वगुरु होने के काल्पनिक या मिथकीय अभिमान से भले ही भरे हों, हमारा वर्त्तमान पश्चिम के बौद्धिक और वैचारिक विकास के आगे बौना है।

डोनाल्ड ट्रम्प के उदय को अमेरिकी बुद्धिजीवियों के बड़े वर्ग ने संदेह की नजरों से देखा। जाहिर है, ट्रम्प को जनता का समर्थन मिला तभी वे राष्ट्रपति बने थे। लेकिन, जब बौद्धिक समुदाय ने ट्रम्प को निशाने पर लिया तो ट्रम्प समर्थकों ने उनको ट्रोल करना नहीं शुरू किया। यहां तक कि नाओम चोम्स्की ने ट्रम्प प्रशासन को 'मानवद्रोही सरकार' की संज्ञा दी। परन्तु, इस कारण चोम्स्की को लेकर वैसा विवाद नहीं खड़ा किया गया जैसा भारत में खड़ा कर दिया जाता है। लोगों ने नाओम चोम्स्की की बातों को गम्भीरता से लिया और ट्रम्प की लोकप्रियता के ग्राफ में तीव्र गिरावट का एक बड़ा कारण अमेरिकी बुद्धिजीवियों के उनके प्रति विरोध को माना गया।

नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के बाद सांस्कृतिक अंतर्विरोधों को जिस तरह से सत्ता की शह पर बढ़ावा दिया गया, देश के माहौल पर जिस तरह नकारात्मकताएँ हावी होने लगीं, उसके विरोध में भारत के अनेक कवियों, साहित्यकारों, कलाकारों ने अपने पुरस्कार लौटाने शुरू किए। यह उस बौद्धिक वर्ग का एक प्रतीकात्मक विरोध था और इसको समझा जाना चाहिए था।

लेकिन, क्या हुआ? इन कवियों, कलाकारों को जम कर ट्रोल किया जाने लगा। खास कर हिन्दी समाज में इसे लेकर एक शब्द अस्तित्व में आया, "पुरस्कार वापसी गैंग"। सोशल मीडिया पर इस शब्द का इतना अधिक प्रयोग होने लगा और विवादों को ऐसा मोड़ दे दिया गया कि सार्थक विमर्श संभव ही नहीं रह गया।

सत्ता की रीतियों-नीतियों के विरुद्ध बौद्धिकों के विरोध को हिन्दी समाज के अधिकतर लोगों ने जिस तरीके से ग्रहण किया, यह उनके बौद्धिक दिवालियापन को ही दर्शाता है। यहां तक कि अमर्त्य सेन ने जब मोदी-सरकार के विकास की सैद्धांतिकी पर सवाल उठाए तो उन्हें भी राजनीति से प्रेरित कहा गया। वंचित समुदायों के प्रति ज्यां द्रेज के समर्पण की उपेक्षा कर उनका उपहास इसलिये उड़ाया गया क्योंकि उन्होंने सरकार की आर्थिक नीतियों की आलोचना की।

लेकिन, इसमें आश्चर्य कैसा? ज़िन्दगी से जुड़े मौलिक मुद्दों की बातें करने वालों की उपेक्षा करना और कृत्रिम मुद्दों को हवा देकर उन्माद फैलाने वालों की सही पहचान न कर पाना जिस समाज के अधिकतर लोगों की प्रकृति में शामिल हो, वह अमर्त्य सेन के सवालों में राजनीतिक कोण की तलाश करेगा ही, ज्यां द्रेज का मजाक उड़ाएगा ही। यही तो राजनीति चाहती है।

जो समाज अपने बौद्धिक वर्ग को जितना ही उपहास के भाव से देखता है वह राजनीति के द्वारा उतना ही छला जाता है।

प्रेमचंद ने कहा था, "साहित्य राजनीति के आगे चलने वाली मशाल है"। आप साहित्य से जितना जुड़ेंगे, देश-समाज के बौद्धिकों की बातों को जितना ही समझने की, विश्लेषित करने की कोशिश करेंगे, राजनीति और समाज के अंधेरों और अंतर्विरोधों के प्रति आपकी समझ उतनी विकसित होगी। लेकिन, जब कोई समाज अपने साहित्य से दूर होता जाएगा, अपने बौद्धिकों का उपहास कर गर्व महसूस करेगा तो राजनीति की अंधेरी गलियों में भटकने से उसे कौन बचा सकता है...???
लेखक पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय में एशोसिएट प्रोफेसर हैं।

 



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